हमारा मानना है कि तथाकथित “हिन्दुत्व” के इस दौर में, भारत की बहुसंख्यक आबादी हिन्दू-धर्म से पृथक होकर “हिन्दूत्व” की ओर अनपेक्षित रूप से आकर्षित हो रही है। इसके कारण भी कई हो सकते हैं, यह भी हो सकता है कि हमारा विश्लेषण गलत हो, पर हमें लगता है कि हिन्दू धर्म की मूल अवधारणाओं से हम दूर होते जा रहे हैं, इसी वजह से हम हिन्दू धर्म से पृथक होकर, “हिन्दूत्व” की ओर बढने लगे हैं।
हमें नहीं जानना कि इस्लाम में क्या उचित है और क्या अनुचित। किन्तु इतना जरूर ज्ञात है कि किसी (सामान्य) मुस्लिम से बात कर लें, वह भले ही कुछ और जानता हो, या न जानता हो, अपने धर्मग्रंथों के बारे में उसे एक सामान्य हिंदू से अधिक जानकारी होती है। शायद यह भी एक कारण है, जिस वजह से हम धर्म को मन से नहीं, बल्कि मस्तिष्क से स्वीकार कर रहे हैं। नतीजा- आपसी टकराव तथा वैमनस्य।
एक होड़ मची है आजकल, खुद को अधिक बड़ा हिन्दू सिद्ध करने की, हालांकि इसके केन्द्र में राजनीति है, हम सब जानते हैं, पर मानने को तैयार नहीं कि हम राजनीति के कारण ऐसा करने को प्रेरित हो रहे हैं। हमारे कुछ नजदीकी मित्र जो ऐसे परिवारों से ताल्लुक रखते हैं, जहां मांस-मदिरा त्याज्य है, निषिद्ध है, किन्तु वे मित्र बड़े चाव से अनियमित दिनचर्या, तमाम तरह के नशे और मांसाहार में पर्याप्त रूचि रखते हैं। यद्यपि भारतीय संविधान सबको मांसाहार व मदिरापान आदि की अनुमति देता है, किन्तु ऐसे व्यक्ति जब मुस्लिमों को रक्तपात के लिए दोषी ठहराते हैं, गौकशी के लिए दोषी ठहराते हैं तो आश्चर्य होता है।
कोरोना महामारी के इस दौर में यह तो स्पष्ट हो ही रहा है कि आज दूसरे की पीड़ा, दूसरे का जीवन केवल हमारी नजर में एक संख्या बन गया है, और खुद की पीड़ा एक समस्या।
हो सकता है कि वैज्ञानिकता के इस युग में धर्म सभी प्रश्नों का उत्तर न हो, पर यह भी सच है, कि आज भी अधिकांश प्रश्नों के उत्तर धर्म और धर्मग्रंथों में हमें मिल जाते हैं। कुछ और न भी मिले तब भी एक सुकून तो मिलता ही है और दूसरों की पीड़ा को समझने की मानसिकता मिलती है, जिसकी आज के इस दौर में सबसे अधिक आवश्यकता है।
इन्हीं सोच के साथ हमारे धर्मग्रंथों की ओर मुड़ने का आह्वान करने की इच्छा है, शेष “ईश्वरीच्छा बलीयसी”