तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर।।
चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष विषाद हृदयँ अकुलानी।।
जीति को सकइ अजय रघुराई। माया तें असि रचि नहिं जाई।।
सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना।।
रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहि सीता कर दुख भागा।।
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई।।
श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई। कही सो प्रगट होति किन भाई।।
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ। फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ।।
रामदूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करूनानिधान की।।
यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी।।
नर बानरहि संग कहु कैसें। कही कथा भइ संगति जैसें।।
कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास।
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ।। १३।।
तब सुंदर मुद्रिका (अंगूठी) सीताजी ने देखी, जिस पर अति-सुंदर “राम” नाम अंकित था।
इस अंगूठी को पहचान कर सीताजी आश्चर्य चकित रह गईं। खुशी और दुख दोनों ही भाव उनके चेहरे पर आए उन्हें विचलित करने लगे
कि इस जग में ऐसा तो कोई है नहीं, जो रघुराय (श्रीराम) को जीत सके, ऐसी सुंदर अंगूठी same to same तो माया से भी नहीं बनाई जा सकती (क्योंकि हर किसी ने देखी नहीं)।
सीताजी मन में तरह-तरह के विचार करने लगीं, कि तभी हनुमान जी की मधुर वाणी उनके (सीताजी) के कानों में पड़े
हनुमान जी वहां श्रीरामचंद्र भगवान के गुणों का बखान करने लगे, जिन्हें सुनकर (उस हरिकीर्तन में मन लगने से) सीताजी का दुख भी चला गया।
सीताजी उसे कान और ध्यान से (बहुत ज्यादा ध्यान से) सुनने लगीं, और बोलीं, कि (हरि-कीर्तन करने वाला) कौन है भाई ? सामने क्यो नहीं आते ?
ऐसा सुनकर अनंत कोटि बलवंत वानर राज हनुमंत सीताजी के निकट चले गये, किन्तु आश्चर्य से सीताजी ने फौरन मुंह फेर लिया।
ऐसे में हनुमान जी कहने लगे- हे माता जानकी (राजा जनक की बेटी होने के कारण सीताजी का नाम जानकी भी है) करूणानिधान भगवान की शपथ खाकर मैं कहता हूँ कि मैं प्रभु श्रीराम का दूत हूँ।
यह अंगूठी मैं ही यहां लाया हूँ, जो स्वयं श्रीराम ने पहचान (निशानी) के तौर पर दी है।
सीताजी ने पूछा अगर ऐसा है, तो इंसान और बंदर कैसे मिल गये ? तब हनुमत ने पूरी कथा विवरण सीताजी को बता दिया, (कि किस तरह उनकी भेंट हुई)
कपीश के सप्रेम वचन सुनकर सीताजी के मन में विश्वास जागा, और उन्होंने मान लिया कि यह वानर (हनुमान जी) मन, कर्म व वचन से कृपासिंधु श्रीराम के दास है।