राम तेज बल बुधि बिपुलाई। सेष सहस सत सकहिं न गाई॥
सक सर एक सोषि सत सागर। तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर॥
तासु बचन सुनि सागर पाहीं। मागत पंथ कृपा मन माहीं॥
सुनत बचन बिहसा दससीसा। जौं असि मति सहाय कृत कीसा॥
सहज भीरू कर बचन दृढाई। सागर सन ठानी मचलाई॥
मूढृ मृषा का करसि बड़ाई। रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई॥
सचिव सभीत बिभीषन जाकें। बिजय बिभूति कहॉं जग ताकें॥
सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी। समय बिचारि पत्रिका काढ़ी॥
रामानुज दीन्ही यह पाती। नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती॥
बिहसि बाम कर लीन्ही रावन। सचिव बोलि सठ लाग बचावन॥
बातन्हि मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस ॥ ५६क ॥
की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग ॥ ५६ख ॥
(दूत ने आगे कहा कि) श्रीराम के तेज बल और बुद्धि की महानता तो सैंकड़ों-हजारों शेषनाग भी नहीं गा सकते।
जो एक तीर से ही सैंकड़ों समुद्रों को सोखने में सक्षम हैं, (वे श्रीराम) आपके भाई से उपाय पूछ रहे हैं
उनकी (विभीषण जी की) बात सुनकर (मानकर) समुद्र के पास गए हैं, और समुद्र से कृपापूर्वक रास्ता मांग रहे हैं।
दशानन यह बात सुनते ही बहस करने लगा (कुतर्क करने लगा) कि – जब ऐसी बुद्धि है तभी तो बंदर उसकी सहायता कर रहे हैं।
स्वभाव से ही डरपोक व्यक्ति का अपनी बात पर डटे रहना देखो वह समुद्र से जिद कर रहा है
हे मूर्ख क्यों व्यर्थ ही बड़ाई करता है, शत्रु की बुद्धि की थाह मैंने पा ली है
डरपोक विभाीषण जिसके सलाह देने वाला हो, उसके लिए संसार में विजय का ऐश्वर्य कहां से होगा ?
दुष्ट के वचन सुनकर तो दूत को भी गुस्सा आ गया, स्थिति को भांपकर उसने वह चिठ्ठी निकाली
(और कहा) श्रीराम के भाई ने यह पत्र दिया है, मालिक, इसे बंचवाकर तसल्ली कर लीजिए
जिद में बांए हाथ से रावण ने वह ली और मंत्री को बुलवाकर बंचवाने लगा।
(जिसमें लिखा था) बातों से ही मन को खुश करके मूर्ख अपने कुल के लोगों के जीवन को नष्ट मत करवा, श्रीराम के विरोध से तू नहीं उबर सकेगा विष्णु भगवान की शरण में आजा
या तो घमण्ड को त्यागकर, भाई की तरह प्रभु (श्रीराम) के चरण कमलों का भंवरा बन जा (शरण में आजा) या फिर श्रीराम के बाणों की आग में जल जाने वाला कुल सहित पतंगा बन जा (तेरी मर्जी)