सुंदरकाण्ड (दोहा-48)
सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ।। जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवै सभय सरन तकि मोही।। तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना।। जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा।। सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बॉंध बरि डोरी।। समदरसी इच्छा कछु नाहीं।…