सुंदरकाण्ड (दोहा-47)
तब लगि हृदयँ बसत खल नाना। लोभ मोह मच्छर मद माना।। जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कटि भाथा।। ममता तरून तमी अँधिआरी। राग द्वेष उलूक सुखकारी।। लब लगि बसति जीव मन माहीं। जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं।। अब मैं कुसल मिटे भय भारे। देखि राम पद कमल तुम्हारे।। तुम्ह कृपाल…